Wednesday 15 May 2013

द्वितीयाध्याये चतुर्थः पादः 2-4

पाणिनि महर्षि विरचिता अष्टाध्यायी 
द्वितीयाध्याये चतुर्थः पादः
द्विगुरेकवचनम्  ॥ २,४.१ ॥
द्वन्द्वश्च प्राणितूर्यसेनाङ्गानाम्  ॥ २,४.२ ॥
अनुवादे चरणानाम्  ॥ २,४.३ ॥
अध्वर्युक्रतुरनपुंसकम्  ॥ २,४.४ ॥
अध्ययनतोऽविप्रकृष्टाख्यानाम्  ॥ २,४.५ ॥
जातिरप्राणिनाम्  ॥ २,४.६ ॥
विशिष्टलिङ्गो नदी देशोऽग्रामाः  ॥ २,४.७ ॥
क्षुद्रजन्तवः  ॥ २,४.८ ॥
येषां च विरोधः शाश्वतिकः  ॥ २,४.९ ॥
शूद्राणामनिरवसितानाम्  ॥ २,४.१० ॥
गवाश्वप्रभृतीनि च  ॥ २,४.११ ॥
विभाषा वृक्षमृगतृणधान्यव्यञ्जनपशुशकुन्यश्ववडवपूर्वापराधरोत्तराणाम्  ॥ २,४.१२ ॥
विप्रतिषिद्धं चानधिकरणवाचि  ॥ २,४.१३ ॥
न दधिपयादीनि  ॥ २,४.१४ ॥
अधिकरनैतावत्त्वे च  ॥ २,४.१५ ॥
विभाषा समीपे  ॥ २,४.१६ ॥
स नपुंसकम्  ॥ २,४.१७ ॥
अव्ययीभावश्च  ॥ २,४.१८ ॥
तत्पुरुषोऽनञ्कर्मधारयः  ॥ २,४.१९ ॥
सञ्ज्ञायां कन्तोशीनरेषु  ॥ २,४.२० ॥
उपज्ञोपक्रमं तदाद्याचिख्यासायाम्  ॥ २,४.२१ ॥
छाया बाहुल्ये  ॥ २,४.२२ ॥
सभा राजाऽमनुस्यपूर्वा  ॥ २,४.२३ ॥
अशाला च  ॥ २,४.२४ ॥
विभाषा सेनासुराच्छायाशालानिशानाम्  ॥ २,४.२५ ॥
परवल्लिङ्गं द्वन्द्वतत्पुरुषयोः  ॥ २,४.२६ ॥
पूर्ववदश्ववडवौ  ॥ २,४.२७ ॥
हेमन्तशिशिरावहोरात्रे च छन्दसि  ॥ २,४.२८ ॥
रात्राह्नाहाः पुंसि  ॥ २,४.२९ ॥
अपथं नपुंसकम्  ॥ २,४.३० ॥
अर्धर्चाः पुंसि च  ॥ २,४.३१ ॥
इदमोऽन्वादेशेऽशनुदात्तस्तृतीयादौ  ॥ २,४.३२ ॥
एतदस्त्रतसोस्त्रतसौ चानुदातौ  ॥ २,४.३३ ॥
द्वितीयाटौस्स्वेनः  ॥ २,४.३४ ॥
आर्धधातुके  ॥ २,४.३५ ॥
अदो जग्धिर्ल्यप्ति किति  ॥ २,४.३६ ॥
लुङ्सनोर्घसॢ  ॥ २,४.३७ ॥
घञपोश्च  ॥ २,४.३८ ॥
बहुलं छन्दसि  ॥ २,४.३९ ॥
लिट्यन्तरस्याम्  ॥ २,४.४० ॥
वेञो वयिः  ॥ २,४.४१ ॥
हनो वध लिङि  ॥ २,४.४२ ॥
लुङि च  ॥ २,४.४३ ॥
आत्मनेपदेष्वन्यतरस्याम्  ॥ २,४.४४ ॥
इणो गा लुङि  ॥ २,४.४५ ॥
णौ गमिरबोधने  ॥ २,४.४६ ॥
सनि च  ॥ २,४.४७ ॥
इङश्च  ॥ २,४.४८ ॥
गाङ्लिटि  ॥ २,४.४९ ॥
विभाषा लुङॢङोः  ॥ २,४.५० ॥
णौ च संश्चङोः  ॥ २,४.५१ ॥
अस्तेर्भूः  ॥ २,४.५२ ॥
ब्रुवो बचिः  ॥ २,४.५३ ॥
चक्षिङः ख्याञ् ॥ २,४.५४ ॥
वा लिटि  ॥ २,४.५५ ॥
अजेर्व्यघञपोः  ॥ २,४.५६ ॥
वा यौ  ॥ २,४.५७ ॥
ण्यक्षत्रियार्षञितो यूनि लुगणिञोः  ॥ २,४.५८ ॥
पैलादिब्यश्च  ॥ २,४.५९ ॥
इञः प्राचाम्  ॥ २,४.६० ॥
न तौल्वलिभ्यः  ॥ २,४.६१ ॥
तद्राजस्य बहुषु तेन+एवास्त्रियाम्  ॥ २,४.६२ ॥
यस्कादिभ्यो गोत्रे  ॥ २,४.६३ ॥
यञञोश्च  ॥ २,४.६४ ॥
अत्रिभृगुकुत्सवसिष्ठगोतमाङ्गिरोभ्यश्च  ॥ २,४.६५ ॥
बह्वचिञः प्राच्यभ्रतेषु  ॥ २,४.६६ ॥
न गोपवनादिभ्यः  ॥ २,४.६७ ॥
तिककितवादिभ्यो द्वन्द्वे  ॥ २,४.६८ ॥
उपकादिभ्योऽन्यतरस्यामद्वन्द्वे  ॥ २,४.६९ ॥
आगस्त्यकौण्डिन्ययोरगस्तिकुण्डिनच् ॥ २,४.७० ॥
सुपो धातुप्रातिपदिकयोः  ॥ २,४.७१ ॥
अदिप्रभृतिभ्यः शपः  ॥ २,४.७२ ॥
बहुलं छन्दसि  ॥ २,४.७३ ॥
यङोऽचि च  ॥ २,४.७४ ॥
जुहोत्यादिभ्यः श्लुः  ॥ २,४.७५ ॥
बहुलं छन्दसि  ॥ २,४.७६ ॥
गातिस्थाघुपाभूभ्यः सिचः परस्मैपदेषु  ॥ २,४.७७ ॥
विभाषा घ्राधेट्शाच्छासः  ॥ २,४.७८ ॥
तनादिभ्यस्तथासोः  ॥ २,४.७९ ॥
मन्त्रे घसह्वरनशवृदहाद्वृच्कृगमिजनिभ्यो लेः  ॥ २,४.८० ॥
आमः  ॥ २,४.८१ ॥
अव्ययादाप्सुपः  ॥ २,४.८२ ॥
नाव्ययीभावादतोऽम्‌ त्वपञ्चम्याः  ॥ २,४.८३ ॥
तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्  ॥ २,४.८४ ॥
लुटः प्रथमस्य डारौरसः  ॥ २,४.८५ ॥
इति पाणिनि महर्षि विरचिष्टाध्यायी मध्ये  
द्वितीयाध्याये चतुर्थः पादः 


Tuesday 14 May 2013

द्वितीयाध्याये तृतीयः पादः 2-3

पाणिनि महर्षि विरचिता अष्टाध्यायी 
द्वितीयाध्याये  तृतीयः पादः
अनभिहिते  ॥ २,३.१ ॥
कर्मणि द्वितीया  ॥ २,३.२ ॥
तृतीया च होश्छन्दसि  ॥ २,३.३ ॥
अन्तराऽन्तरेण युक्ते  ॥ २,३.४ ॥
कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे  ॥ २,३.५ ॥
अपवर्गे तृतीया  ॥ २,३.६ ॥
सप्तमीपञ्चम्यौ कारकमध्ये  ॥ २,३.७ ॥
कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया  ॥ २,३.८ ॥
यस्मादधिकं यस्य च+ईश्वरवचनं तत्र सप्तमी  ॥ २,३.९ ॥
पञ्चम्यपाङ्परिभिः  ॥ २,३.१० ॥
प्रतिनिधिप्रतिदाने च यस्मात् ॥ २,३.११ ॥
गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुर्थ्यौ चेष्टायामनध्वनि  ॥ २,३.१२ ॥
चतुर्थी सम्प्रदाने  ॥ २,३.१३ ॥
क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः  ॥ २,३.१४ ॥
तुमर्थाच्च भाववचनात् ॥ २,३.१५ ॥
नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवषड्योगाच्च  ॥ २,३.१६ ॥
मन्यकर्मण्यनादरे विभाषाऽप्राणिषु  ॥ २,३.१७ ॥
कर्तृकरणयोस्तृतीया  ॥ २,३.१८ ॥
सहयुक्तेऽप्रधाने  ॥ २,३.१९ ॥
येनाङ्गविकारः  ॥ २,३.२० ॥
इत्थम्भूतलक्षणे  ॥ २,३.२१ ॥
सञ्ज्ञोऽन्यतरस्यां कर्मणि  ॥ २,३.२२ ॥
हेतौ  ॥ २,३.२३ ॥
अकर्तर्यृणे पञ्चमी  ॥ २,३.२४ ॥
विभाषा गुणेऽस्त्रीयाम्  ॥ २,३.२५ ॥
षष्ठी हेतुप्रयोगे  ॥ २,३.२६ ॥
सर्वनाम्नस्तृतीया च  ॥ २,३.२७ ॥
अपादाने पञ्चमी  ॥ २,३.२८ ॥
अन्यारादितरर्तेदिक्शब्दाञ्चूत्तरपदाजाहियुक्ते  ॥ २,३.२९ ॥
षष्ठ्यतसर्थप्रत्ययेन  ॥ २,३.३० ॥
एनपा द्वितीया  ॥ २,३.३१ ॥
पृथग्विनानानाभिस्तृतीयाऽन्यतरस्याम्  ॥ २,३.३२ ॥
करेण च स्तोकाल्पकृच्छ्रकतिपयस्यासत्त्ववचनस्य  ॥ २,३.३३ ॥
दूरान्तिकार्थैः षष्ठ्यन्यतरस्याम्  ॥ २,३.३४ ॥
दूरान्तिकार्थेभ्यो द्वितीया च  ॥ २,३.३५ ॥
सप्तम्यधिकरने च  ॥ २,३.३६ ॥
यस्य च भावेन भावलक्षणम्  ॥ २,३.३७ ॥
षष्ठी चानादरे  ॥ २,३.३८ ॥
स्वामीश्वराधिपतिदायादसाक्षिप्रतिभूप्रसुतैश्च  ॥ २,३.३९ ॥
आयुक्तकुशलाभ्यां च आसेवायाम्  ॥ २,३.४० ॥
यतश्च निर्धारनम्  ॥ २,३.४१ ॥
पञ्चमी विभक्ते  ॥ २,३.४२ ॥
साधुनिपुणाभ्यामर्चायां सप्तम्यप्रतेः  ॥ २,३.४३ ॥
प्रसितोत्सुकाभ्यां तृतीया च  ॥ २,३.४४ ॥
नक्षत्रे च लुपि  ॥ २,३.४५ ॥
प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा  ॥ २,३.४६ ॥
सम्बोधने च  ॥ २,३.४७ ॥
सा+आमन्त्रितम्  ॥ २,३.४८ ॥
एकवचनं सम्बुद्धिः  ॥ २,३.४९ ॥
षष्ठी शेषे  ॥ २,३.५० ॥
ज्ञोऽविदर्थस्य करणे  ॥ २,३.५१ ॥
अधीगर्थदयेशां कर्मणि  ॥ २,३.५२ ॥
कृञः प्रतियत्ने  ॥ २,३.५३ ॥
रुजार्थानां भाववचनानामज्वरेः  ॥ २,३.५४ ॥
आशिषि नाथः  ॥ २,३.५५ ॥
जासिनिप्रहणनाटक्राथपिषां हिंसायाम्  ॥ २,३.५६ ॥
व्यवहृपणोः समर्थयोः  ॥ २,३.५७ ॥
दिवस्तदर्थस्य  ॥ २,३.५८ ॥
विभाषोपसर्गे  ॥ २,३.५९ ॥
द्वितीया ब्राह्मणे  ॥ २,३.६० ॥
प्रेष्यब्रुवोर्हविषो देवतासम्प्रदाने  ॥ २,३.६१ ॥
चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि  ॥ २,३.६२ ॥
यजेश्च करणे  ॥ २,३.६३ ॥
कृत्वोऽर्थप्रयोगे कालेऽधिकरणे  ॥ २,३.६४ ॥
कर्तृकर्मणोः कृति  ॥ २,३.६५ ॥
उभयप्राप्तौ कर्मणि  ॥ २,३.६६ ॥
क्तस्य च वर्तमाने  ॥ २,३.६७ ॥
अधिकरणवाचिनश्च  ॥ २,३.६८ ॥
न लोउकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम्  ॥ २,३.६९ ॥
अकेनोर्भविष्यदाधमर्ण्ययोः  ॥ २,३.७० ॥
कृत्यानां कर्तरि वा  ॥ २,३.७१ ॥
तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यां तृतीयाऽन्यतरस्याम्  ॥ २,३.७२ ॥
चतुर्थी च आशिष्यायुष्यमद्रभद्रकुशलसुखार्थहितैः  ॥ २,३.७३ ॥
 
इति पाणिनि महर्षि विरचिष्टाध्यायी मध्ये
द्वितीयाध्याये  तृतीयः पादः
 

Monday 13 May 2013

द्वितीयाध्याये द्वितीयः पादः 2-2

पाणिनि महर्षि विरचिता अष्टाध्यायी 
द्वितीयाध्याये द्वितीयः पादः
पूर्वापराधरोत्तरमेकदेशिनैकाधिकरणे  ॥ २,२.१ ॥
अर्धं नपुंसकम्  ॥ २,२.२ ॥
द्वितियतृतीयचतुर्थतुर्याण्यन्य्तरस्याम्  ॥ २,२.३ ॥
प्राप्तापन्ने च द्वितीयया  ॥ २,२.४ ॥
कालाः परिमाणिना  ॥ २,२.५ ॥
नञ् ॥ २,२.६ ॥
ईषदकृता  ॥ २,२.७ ॥
षष्ठी  ॥ २,२.८ ॥
याजकादिभिश्च  ॥ २,२.९ ॥
न निर्धारणे  ॥ २,२.१० ॥
पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्यसमानाधिकरनेन  ॥ २,२.११ ॥
क्तेन च पूजायाम्  ॥ २,२.१२ ॥
अधिकरणवाचिना च  ॥ २,२.१३ ॥
कर्मणि च  ॥ २,२.१४ ॥
तृजकाभ्यां कर्तरि  ॥ २,२.१५ ॥
कर्तरि च  ॥ २,२.१६ ॥
नित्यं क्रीडाजीविकयोः  ॥ २,२.१७ ॥
कुगतिप्रादयः  ॥ २,२.१८ ॥
उपपदमतिङ् ॥ २,२.१९ ॥
अमैवाव्ययेन  ॥ २,२.२० ॥
तृतीयाप्रभृतीन्यतरस्यम्  ॥ २,२.२१ ॥
क्त्वा च  ॥ २,२.२२ ॥
शेषो बहुव्रीहिः  ॥ २,२.२३ ॥
अनेकमन्यपदार्थे  ॥ २,२.२४ ॥
सङ्ख्ययाऽव्ययासन्नादूराधिकसङ्ख्याः सङ्ख्येये  ॥ २,२.२५ ॥
दिङ्नामान्यन्तराले  ॥ २,२.२६ ॥
तत्र तेन+इदमिति सरूपे  ॥ २,२.२७ ॥
तेन सह+इति तुल्ययोगे  ॥ २,२.२८ ॥
चार्थे द्वन्द्वः  ॥ २,२.२९ ॥
उपसर्जनं पूर्वम्  ॥ २,२.३० ॥
राजदन्तादिषु परम्  ॥ २,२.३१ ॥
द्वन्द्वे घि  ॥ २,२.३२ ॥
अजाद्यदन्तम्  ॥ २,२.३३ ॥
अल्पाच्तरम्  ॥ २,२.३४ ॥
सप्तमीविशेषने बहुव्रीहौ  ॥ २,२.३५ ॥
निष्ठा  ॥ २,२.३६ ॥
वा+आहिताग्न्यादिषु  ॥ २,२.३७ ॥
कडाराः कर्मधारये  ॥ २,२.३८ ॥
 
इति
पाणिनि महर्षि विरचिताष्टाध्यायी 
द्वितीयाध्याये द्वितीयः पादः

Sunday 12 May 2013

द्वितीयाध्याये प्रथमः पादः 2-1

पाणिनि महर्षि विरचिता अष्टाध्यायी 
द्वितीयाध्याये प्रथमः पादः


समर्थः पदविधिः  ॥ २,१.१ ॥
सुबामन्त्रिते पराङ्गवत्स्वरे  ॥ २,१.२ ॥
प्राक्कडारात्समासः  ॥ २,१.३ ॥
सह सुपा  ॥ २,१.४ ॥
अव्ययीभवः  ॥ २,१.५ ॥
अव्ययं विभक्तिसमीपसमृद्धिव्यृद्ध्यर्थाभावात्ययासम्प्रतिशब्दप्रादुर्भावपश्चाद्यथानुपूर्व्ययौगपद्यसादृश्यसम्पत्तिसाकल्यान्तव्चनेषु  ॥ २,१.६ ॥
यथाऽसादृश्ये  ॥ २,१.७ ॥
यावदवधारणे  ॥ २,१.८ ॥
सुप्प्रैत्ना मात्रार्थे  ॥ २,१.९ ॥
अक्षशलाकासङ्ख्याः परिणा  ॥ २,१.१० ॥
विभाषा  ॥ २,१.११ ॥
अपपरिबहिरञ्चवः पञ्चम्या  ॥ २,१.१२ ॥
आङ्मर्यादाभिविध्योः  ॥ २,१.१३ ॥
लक्षणेनाभिप्रती आभिमुख्ये  ॥ २,१.१४ ॥
अनुर्यत्समया  ॥ २,१.१५ ॥
यस्य च आयामः  ॥ २,१.१६ ॥
तिष्ठद्गुप्रभृतीनि च  ॥ २,१.१७ ॥
पारे मध्ये षष्ठ्या वा  ॥ २,१.१८ ॥
सङ्ख्या वंश्येन  ॥ २,१.१९ ॥
नदीभिश्च  ॥ २,१.२० ॥
अन्यपदर्थे च सञ्ज्ञायाम्  ॥ २,१.२१ ॥
तत्पुरुषः  ॥ २,१.२२ ॥
द्विगुश्च  ॥ २,१.२३ ॥
द्विदीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापनैः  ॥ २,१.२४ ॥
स्वयं क्तेन  ॥ २,१.२५ ॥
खट्वा क्षेपे  ॥ २,१.२६ ॥
सामि  ॥ २,१.२७ ॥
कालाः  ॥ २,१.२८ ॥
अत्यन्तसंयोगे च  ॥ २,१.२९ ॥
तृतीया तत्कृतार्थेन गुणवचनेन  ॥ २,१.३० ॥
पूर्वसदृशसमोनार्थकलहनिपुणमिश्रश्लक्ष्णैः  ॥ २,१.३१ ॥
कर्तृकर्णे दृता बहुलम्  ॥ २,१.३२ ॥
कृत्यैरधिकार्थवचने  ॥ २,१.३३ ॥
अन्नेन व्यञ्जनम्  ॥ २,१.३४ ॥
भक्ष्येण मिश्रीकरनम्  ॥ २,१.३५ ॥
चतुर्थी तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः  ॥ २,१.३६ ॥
पञ्चमी भयेन  ॥ २,१.३७ ॥
अपेतापोढमुक्तपतितापत्रस्तैरल्पशः  ॥ २,१.३८ ॥
स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि क्तेन  ॥ २,१.३९ ॥
सप्तमी शौण्डैः  ॥ २,१.४० ॥
सिद्धशुष्कपक्वबन्धैश्च  ॥ २,१.४१ ॥
ध्वाङ्क्षेन क्षेपे  ॥ २,१.४२ ॥
क्र्त्यैरृणे  ॥ २,१.४३ ॥
सञ्ज्ञायाम्  ॥ २,१.४४ ॥
क्तेनाहोरात्रावयवाः  ॥ २,१.४५ ॥
तत्र  ॥ २,१.४६ ॥
क्षेपे  ॥ २,१.४७ ॥
पात्रेसमितादयश्च  ॥ २,१.४८ ॥
पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणानवकेवलाः समानाधिकरणेन  ॥ २,१.४९ ॥
दिक्सङ्ख्ये सञ्ज्ञायाम्  ॥ २,१.५० ॥
तद्धितर्थोत्तरपदसमाहारे च  ॥ २,१.५१ ॥
सङ्ख्यापूर्वो द्विगुः  ॥ २,१.५२ ॥
कुत्सितानि कुत्सनैः  ॥ २,१.५३ ॥
पापाणके कुत्सितैः  ॥ २,१.५४ ॥
उपमानानि सामान्यवचनैः  ॥ २,१.५५ ॥
उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे  ॥ २,१.५६ ॥
विशेसनं विशेष्येण बहुलम्  ॥ २,१.५७ ॥
पूर्वापरप्रथमचरमजघन्यसमानमध्यमध्यमवीराश्च  ॥ २,१.५८ ॥
श्रेण्यादयः कृतादिभिः  ॥ २,१.५९ ॥
क्तेन नञ्विशिष्टेनानञ् ॥ २,१.६० ॥
सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः पूज्यमानैः  ॥ २,१.६१ ॥
वृन्दरकनागकुञ्जरैः पूज्यमानम्  ॥ २,१.६२ ॥
कतरकतमौ जातिपरिप्रश्ने  ॥ २,१.६३ ॥
किं क्षेपे  ॥ २,१.६४ ॥
पोटायुवतिस्तोककतिपयगृष्टिधेनुवशावेहद्बष्कयणीप्रवक्तृश्रोत्रियाध्यापकधूर्तैर्जातिः  ॥ २,१.६५ ॥
प्रशंसावचनैश्च  ॥ २,१.६६ ॥
युवा खलतिपालितवलिनजरतीभिः  ॥ २,१.६७ ॥
कृत्यतुल्याख्या अजात्या  ॥ २,१.६८ ॥
वर्णो वर्णेन  ॥ २,१.६९ ॥
कुमारः श्रमणादिभिः  ॥ २,१.७० ॥
चतुष्पादो गर्भिण्या  ॥ २,१.७१ ॥
मयूरव्यंसकादयश्च  ॥ २,१.७२ ॥

इति पाणिनि महर्षि विरचिष्टाध्यायी मध्ये
द्वितीयाध्याये प्रथमः पादः

Sunday 13 May 2012

प्रथमाध्याये चतुर्थः पादः 1-4


पाणिनि महर्षि विरचिता अष्टाध्यायी मध्ये
      प्रथमाध्याये चतुर्थः पादः

आ कडारादेका सञ्ज्ञा   । । १,४.१  । ।
विप्रतिषेधे परं कार्यम्  । । १,४.२  । ।
यू स्त्र्य्-आख्यौ नदी   । । १,४.३  । ।
न-इयङ्-उवङ्-स्थानावस्त्री   । । १,४.४  । ।
व+आमि   । । १,४.५  । ।
ङिति ह्रस्वश्च   । । १,४.६  । ।
शेषो घ्यसखि   । । १,४.७  । ।
पतिः समास एव   । । १,४.८  । ।
षष्ठी-युक्तश्छन्दसि वा   । । १,४.९  । ।
ह्रस्वं लघु   । । १,४.१०  । ।
संयोगे गुरु   । । १,४.११  । ।
दीर्घं च   । । १,४.१२  । ।
यस्मात्प्रत्यय-विधिस्तद्-आदि प्रत्ययेऽङ्गम्  । । १,४.१३  । ।
सुप्-तिङ्-अन्तं पदम्  । । १,४.१४  । ।
नः क्ये   । । १,४.१५  । ।
सिति च   । । १,४.१६  । ।
स्वादिष्व-सर्वनमस्थाने   । । १,४.१७  । ।
यचि भम्  । । १,४.१८  । ।
तसौ मत्व्-अर्थे   । । १,४.१९  । ।
अयस्मय-आदीनि छन्दसि   । । १,४.२०  । ।
बहुषु बहुवचनम्  । । १,४.२१  । ।
द्व्य्-एकयोर्द्विबचन-एकवचने   । । १,४.२२  । ।
कारके   । । १,४.२३  । ।
ध्रुवमपायेऽपादानम्  । । १,४.२४  । ।
भी-त्रा-अर्थानां भय-हेतुः   । । १,४.२५  । ।
परा-जेरसोढः   । । १,४.२६  । ।
वारण-अर्थानां ईप्सितः   । । १,४.२७  । ।
अन्तर्धौ येन अदर्शनं इच्छति   । । १,४.२८  । ।
आख्याता-उपयोगे   । । १,४.२९  । ।
जनि-कर्तुः प्रकृतिः   । । १,४.३०  । ।
भुवः प्रभवः   । । १,४.३१  । ।
कर्मणा यं अभिप्रैति स सम्प्रदानम्  । । १,४.३२  । ।
रुच्य्-अर्थानां प्रीयमाणः   । । १,४.३३  । ।
श्लाघ-ह्नुङ्-स्था-शपां ज्ञीप्स्यमानः   । । १,४.३४  । ।
धारेरुत्तमर्णः   । । १,४.३५  । ।
स्पृहेरीप्सितः   । । १,४.३६  । ।
क्रुध-द्रुह-ईर्ष्य-असूय-अर्थानां यं प्रति कोपः   । । १,४.३७  । ।
क्रुध-द्रुहोरुपसृष्ठयोः कर्म   । । १,४.३८  । ।
रादः-ईक्ष्योर्यस्य विप्रश्नः   । । १,४.३९  । ।
प्रत्य्-आङ्भ्यां श्रुवः पूर्वस्य कर्ता   । । १,४.४०  । ।
अनु-प्रति-गृणश्च   । । १,४.४१  । ।
साधकतमं करणम्  । । १,४.४२  । ।
दिवः कर्म च   । । १,४.४३  । ।
परिक्रयणे सम्प्रदानं अन्यतरस्याम्  । । १,४.४४  । ।
आधारोऽधिकरणम्  । । १,४.४५  । ।
अधि-शीङ्-स्था-आसां कर्म   । । १,४.४६  । ।
अभिनिविशश्च   । । १,४.४७  । ।
उप-अन्व्-अध्य्-आङ्-वसः   । । १,४.४८  । ।
कर्त्रुरीप्सिततमं कर्म   । । १,४.४९  । ।
तथा-युक्तं च अनीप्सितम्  । । १,४.५०  । ।
अकथितं च   । । १,४.५१  । ।
गुति-बुद्धि-प्रत्यवसान-अर्थ-शब्द-कर्म-अकर्मकाणां अणि कर्ता स णौ   । । १,४.५२  । ।
हृ-क्रोरन्यतरस्याम्  । । १,४.५३  । ।
स्वतन्त्रः कर्ता   । । १,४.५४  । ।
तत्-प्रयोजको हेतुश्च   । । १,४.५५  । ।
प्राग्-रीश्वरान्निपाताः   । । १,४.५६  । ।
च-आदयोऽसत्त्वे   । । १,४.५७  । ।
प्र-आदयः   । । १,४.५८  । ।
उपसर्गाः क्रिया-योगे   । । १,४.५९  । ।
गतिश्च   । । १,४.६०  । ।
ऊर्य्-आदि-च्वि-डाचश्च   । । १,४.६१  । ।
अनुकरणं च अनिति-परम्  । । १,४.६२  । ।
आदर-अनादरयोः सद्-असती   । । १,४.६३  । ।
भूषनेऽलम्  । । १,४.६४  । ।
अन्तरपरिग्रहे   । । १,४.६५  । ।
कणे-मनसी श्रद्धा-प्रतीघाते   । । १,४.६६  । ।
पुरोऽव्ययम्  । । १,४.६७  । ।
अस्तं च   । । १,४.६८  । ।
अच्छ गत्य्-अर्थ-वदेषु   । । १,४.६९  । ।
अदोऽनुपदेशे   । । १,४.७०  । ।
तरोऽन्तर्धौ   । । १,४.७१  । ।
विभाषा कृञि   । । १,४.७२  । ।
उपाजेऽन्वाजे   । । १,४.७३  । ।
साक्षात्-प्रभृतीनि च   । । १,४.७४  । ।
अनत्याधान उरसि-मनसी   । । १,४.७५  । ।
मध्ये पदे निवचने च   । । १,४.७६  । ।
नित्यं हस्ते पानाव्-उपयमने   । । १,४.७७  । ।
प्राध्वं वन्धने   । । १,४.७८  । ।
जीविका-उपनिषदावौपम्ये   । । १,४.७९  । ।
ते प्राग्धातोः   । । १,४.८०  । ।
छन्दसि परेऽपि   । । १,४.८१  । ।
व्यवहिताश्च   । । १,४.८२  । ।
कर्मप्रवचनीयाः   । । १,४.८३  । ।
अनुर्लक्षणे   । । १,४.८४  । ।
तृतीया-अर्थे   । । १,४.८५  । ।
हीने   । । १,४.८६  । ।
उपोऽधिके च   । । १,४.८७  । ।
अप-परी वर्जने   । । १,४.८८  । ।
आङ्मर्यादा-वचने   । । १,४.८९  । ।
लक्षन-इत्थं-भूत-आख्यान-भाग-वीप्सासु प्रति-पर्य्-अनवः   । । १,४.९०  । ।
अभिरभागे   । । १,४.९१  । ।
प्रतिः प्रतिनिधि-प्रतिदानयोः   । । १,४.९२  । ।
अधिपरी अनर्थकौ   । । १,४.९३  । ।
सुः पूजायाम्  । । १,४.९४  । ।
अतिरतिक्रमणे च   । । १,४.९५  । ।
अपिः पदार्थ-सम्भावन-अन्ववसर्ग-गर्हा-समुच्चयेषु   । । १,४.९६  । ।
अधिरीश्वरे   । । १,४.९७  । ।
विभाषा कृञि   । । १,४.९८  । ।
लः परस्मैपदम्  । । १,४.९९  । ।
तङ्-आनावात्मनेपदम्  । । १,४.१००  । ।
तिङस्त्रीणि त्रीणि प्रथम-मध्यम-उत्तमाः   । । १,४.१०१  । ।
तान्येकवचनाद्विवचनबहुवचनान्येकशः   । । १,४.१०२  । ।
सुपः   । । १,४.१०३  । ।
विभक्तिश्च   । । १,४.१०४  । ।
युष्मद्य्-उपपदे समान-अधिकरणे स्थानिन्यपि मध्यमः   । । १,४.१०५  । ।
प्रहासे च मन्य-उपपदे मन्यतेरुत्तम एकवच्च   । । १,४.१०६  । ।
अस्मद्युत्तमः   । । १,४.१०७  । ।
शेषे प्रथमः   । । १,४.१०८  । ।
परः संनिकर्षः संहिता   । । १,४.१०९  । ।
विरामोऽवसानम्  । । १,४.११०  । ।

इति पाणिनि महर्षि विरचिता अष्टाध्यायी मध्ये
      प्रथमाध्याये चतुर्थः पादः

Saturday 12 May 2012

प्रथमाध्याये तृतीयः पादः 1-3

पाणिनि महर्षि विरचिता अष्टाध्यायी मध्ये
      प्रथमाध्याये तृतीयः पादः
भूवादयो धातवः   । । १,३.१  । ।
उपदेशेऽज्-अनुनासिक इत् । । १,३.२  । ।
हल्-अन्त्यम्  । । १,३.३  । ।
न विभक्तौ तुस्माः   । । १,३.४  । ।
आदिर्ञि-टु-डवः   । । १,३.५  । ।
षः प्रत्ययसय   । । १,३.६  । ।
दुटू   । । १,३.७  । ।
ल-श-क्वतद्धिते   । । १,३.८  । ।
तस्य लोपः   । । १,३.९  । ।
यथा-सङ्ख्यं अनुदेशः समानाम्  । । १,३.१०  । ।
स्वरितेन अधिकारः   । । १,३.११  । ।
अनुदात्तङित आत्मनेपदम्  । । १,३.१२  । ।
भाव-कर्मणोः   । । १,३.१३  । ।
कर्तरि कर्म-व्यतिहारे   । । १,३.१४  । ।
न गति-हिंसा-अर्थेभ्यः   । । १,३.१५  । ।
इतरेतर-अन्योन्य-उपपदाच्च   । । १,३.१६  । ।
नेर्विशः   । । १,३.१७  । ।
परिव्य्-अवेभ्यः क्रियः   । । १,३.१८  । ।
विपराभ्यां जेः   । । १,३.१९  । ।
अङो दोऽनास्य-विहरणे   । । १,३.२०  । ।
क्रीडोऽनु-सं-परिभ्यश्च   । । १,३.२१  । ।
समवप्रविभ्यः स्थः   । । १,३.२२  । ।
प्रकाशन-स्थेय-आख्यहोश्च   । । १,३.२३  । ।
उदोऽनूर्ध्व-कर्मणि   । । १,३.२४  । ।
उपान्मन्त्र-करणे   । । १,३.२५  । ।
अकर्मकाच्च   । । १,३.२६  । ।
उद्-विभ्यां तपः   । । १,३.२७  । ।
आङो यम-हनः   । । १,३.२८  । ।
समो गम्य्-ऋच्छि-प्रच्छि-स्वरत्यर्ति-श्रु-विदिघ्यः   । । १,३.२९  । ।
नि-सम्-उप-विभ्यो ह्वः   । । १,३.३०  । ।
स्पर्धायां आङः   । । १,३.३१  । ।
गन्धन-अवक्षेपण-सेवन-साहसिक्य-प्रतिथत्न-प्रकथन-उपयोगेषु कृञः   । । १,३.३२  । ।
अधेः प्रसहने   । । १,३.३३  । ।
वेः शब्द-कर्मणः   । । १,३.३४  । ।
अकर्मकाच्च   । । १,३.३५  । ।
सम्मानन-उत्सञ्जन-आचार्यकरण-ज्ञान-भृति-विगणन-व्ययेषु नियः   । । १,३.३६  । ।
कर्तृस्थे च शरीरे कर्मणि   । । १,३.३७  । ।
वृत्ति-सर्ग-तायनेषु क्रमः   । । १,३.३८  । ।
उप-पराभ्याम्  । । १,३.३९  । ।
आङ उद्गमने   । । १,३.४०  । ।
वेः पाद-विहरणे   । । १,३.४१  । ।
प्र-उपाभ्यां समर्थाभ्याम्  । । १,३.४२  । ।
अनुपसर्गाद्वा   । । १,३.४३  । ।
अपह्नवे ज्ञः   । । १,३.४४  । ।
अकर्मकाच्च   । । १,३.४५  । ।
सं-प्रतिभ्यां अनाध्याने   । । १,३.४६  । ।
भासन-उपसम्भाषा-ज्ञान-यत्न-विमत्य्-उपमन्त्रणेषु वदः   । । १,३.४७  । ।
व्यक्तवाचां समुच्चारणे   । । १,३.४८  । ।
अनोरकर्मकात् । । १,३.४९  । ।
विभाषा विप्रलापे   । । १,३.५०  । ।
अवाद्ग्रः   । । १,३.५१  । ।
समः प्रतिज्ञाने   । । १,३.५२  । ।
उदश्चरः सकर्मकात् । । १,३.५३  । ।
संस्तृतीया-युक्तात् । । १,३.५४  । ।
दाणश्च सा चेच्चतुर्थ्य्-अर्थे   । । १,३.५५  । ।
उपाद्यमः स्वकरने   । । १,३.५६  । ।
ज्ञा-श्रु-स्मृ-दृशां सनः   । । १,३.५७  । ।
न अनोर्ज्ञः   । । १,३.५८  । ।
प्रत्य्-आङ्भ्यां श्रुवः   । । १,३.५९  । ।
शदेः शितः   । । १,३.६०  । ।
म्रियतेर्लुङ्-लिङोश्च   । । १,३.६१  । ।
पूर्ववत्सनः   । । १,३.६२  । ।
आम्-प्रत्ययवत्कृञोऽनुप्रयोगस्य   । । १,३.६३  । ।
प्र-उपाभ्यां युजेरयज्ञ-पात्रेषु   । । १,३.६४  । ।
समः क्ष्णुवः   । । १,३.६५  । ।
भुजोऽनवने   । । १,३.६६  । ।
णे रणौ यत्कर्म णौ चेत्स कर्ताऽनाध्याने   । । १,३.६७  । ।
भी-स्म्योर्हेतुभये   । । १,३.६८  । ।
गृधि-वञ्च्योः प्रलम्भने   । । १,३.६९  । ।
लियः संमानन-शालीनीकरणयोश्च   । । १,३.७०  । ।
मिथ्योपपदात्कृञोऽभ्यासे   । । १,३.७१  । ।
स्वरित-ञितः कर्त्र्-अभिप्राये क्रियाफले   । । १,३.७२  । ।
अपाद्वदः   । । १,३.७३  । ।
णिचश्च   । । १,३.७४  । ।
सम्-उद्-आङ्भ्यो यमोऽग्रन्थे   । । १,३.७५  । ।
अनुपसर्गाज्ज्ञः   । । १,३.७६  । ।
विभाषा-उपपदेन प्रतीयमाने   । । १,३.७७  । ।
शेषात्कर्तरि परस्मैपदम्  । । १,३.७८  । ।
अनु-पराभ्यां कृञः   । । १,३.७९  । ।
अभि-प्रत्य्-अतिभ्यः क्षिपः   । । १,३.८०  । ।
प्राद्वहः   । । १,३.८१  । ।
परेर्मृषः   । । १,३.८२  । ।
व्य्-आङ्-परिभ्यो रमः   । । १,३.८३  । ।
उपाच्च   । । १,३.८४  । ।
विभाशाऽकर्मकात् । । १,३.८५  । ।
बुध-युध-नश-जन-इङ्-प्रु-द्रु-स्रुभ्यो णेः   । । १,३.८६  । ।
निगरण-चलन-अर्थेभ्यश्च   । । १,३.८७  । ।
अणावकर्मकाच्चित्तवत्-कर्तृकात् । । १,३.८८  । ।
न पादम्य्-आङ्यम-आङ्यस-परिमुह-रुचि-नृति-वद-वसः   । । १,३.८९  । ।
वा क्यषः   । । १,३.९०  । ।
ध्य्द्भ्यो लुङि   । । १,३.९१  । ।
वृद्भ्यः स्यसनोः   । । १,३.९२  । ।
लुटि च क्लुपः   । । १,३.९३  । ।

इति पाणिनि महर्षि विरचिता अष्टाध्यायी मध्ये
      प्रथमाध्याये तृतीयः पादः

Friday 4 May 2012

प्रथमाध्याये द्वितीयः पादः 1-2



पाणिनि महर्षि विरचिता अष्टाध्यायी
      प्रथमाध्याये द्वितीयः पादः

गाङ्-कुटादिभ्योऽञ्णिन्ङित् । । १,२.१  । ।
विज इट्  । । १,२.२  । ।
विभाषा-ऊर्णोः   । । १,२.३  । ।
सार्वधातुकं अपित् । । १,२.४  । ।
असंयोगाल्लिट्कित् । । १,२.५  । ।
इन्धि-भवतिभ्यां च   । । १,२.६  । ।
मृड्-अमृद-गुध-कुष-क्लिश-वद-वसः क्त्वा   । । १,२.७  । ।
रुद-विद-मुष-ग्रहि-स्वपि-प्रच्छः संश्च   । । १,२.८  । ।
इको झल्  । । १,२.९  । ।
हलन्ताच्च   । । १,२.१०  । ।
लिङ्-सिचौ आत्मनेपदेषु   । । १,२.११  । ।
उश्च   । । १,२.१२  । ।
वा गमः   । । १,२.१३  । ।
हनः सिच् । । १,२.१४  । ।
यमो गन्धने   । । १,२.१५  । ।
विभाषा-उपयमने   । । १,२.१६  । ।
स्थाघ्वोरिच्च   । । १,२.१७  । ।
न क्त्वा स-इट्  । । १,२.१८  । ।
निष्ठा शीङ्-स्विदि-मिदि-क्ष्विदि-धृषः   । । १,२.१९  । ।
मृषस्तितिक्षायाम्  । । १,२.२०  । ।
उदुपधाद्भाव-आदिकर्मणोरन्यतरस्याम्  । । १,२.२१  । ।
पूङः क्त्वा च   । । १,२.२२  । ।
न-उपधात्थ-फ-अन्ताद्वा   । । १,२.२३  । ।
वञ्चि-लुञ्च्य्-ऋतश्च   । । १,२.२४  । ।
तृषि-मृषि-कृशेः काश्यपस्य   । । १,२.२५  । ।
रलो व्-य्-उपधद्-धल्-आदेः संश्च   । । १,२.२६  । ।
ऊकालोऽज्-झ्रस्व-दीर्घ-प्लुतः   । । १,२.२७  । ।
अचश्च   । । १,२.२८  । ।
उच्चैरुदात्तः   । । १,२.२९  । ।
नीचैरनुदात्तः   । । १,२.३०  । ।
समाहारः स्वरितः   । । १,२.३१  । ।
तस्य-आदित उदात्तं अर्ध-ह्रस्वम्  । । १,२.३२  । ।
एक-श्रुति दूरात्सम्बुद्धौ   । । १,२.३३  । ।
यज्ञ-कर्मण्य्-अजप-न्यूङ्ख-सामसु   । । १,२.३४  । ।
उच्चैस्तरां वा वषट्कारः   । । १,२.३५  । ।
विभाषा छन्दसि   । । १,२.३६  । ।
न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तु उदात्तः   । । १,२.३७  । ।
देव-ब्रह्मणोरनुदात्तः   । । १,२.३८  । ।
स्वरितात्संहितायां अनुदात्तानाम्  । । १,२.३९  । ।
उदात्त-स्वरित-परस्य सन्नतरः   । । १,२.४०  । ।
अपृक्त एक-अल्प्रत्ययः   । । १,२.४१  । ।
तत्पुरुषः समान-अधिकरणः कर्मधारयः   । । १,२.४२  । ।
प्रथमा-निर्दिष्टं समास उपसर्जनम्  । । १,२.४३  । ।
एक-विभाक्ति च अपूर्व-निपाते   । । १,२.४४  । ।
अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्  । । १,२.४५  । ।
कृत्-तद्धित-समासाश्च   । । १,२.४६  । ।
ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य   । । १,२.४७  । ।
गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य   । । १,२.४८  । ।
लुक्तद्धित-लुकि   । । १,२.४९  । ।
इद्-गोण्याः   । । १,२.५०  । ।
लुपि युक्तवद्-व्यक्तिवचने   । । १,२.५१  । ।
विशेषणानां च अजातेः   । । १,२.५२  । ।
तदशिष्यं सञ्ज्ञा-प्रमाणत्वात् । । १,२.५३  । ।
लुब्योग-अप्रख्यानात् । । १,२.५४  । ।
योग-प्रमाणे च तद्-अभावेऽदर्शनं स्यात् । । १,२.५५  । ।
प्रधान-प्रत्यय-अर्थवचनं अर्थस्य अन्य-प्रमाणात्वात् । । १,२.५६  । ।
काल-उपसर्जने च तुल्यम्  । । १,२.५७  । ।
जात्य्-आख्यायं एकस्मिन्बहुवचनं अन्यतरस्याम्  । । १,२.५८  । ।
अस्मदो द्वयोश्च   । । १,२.५९  । ।
फल्गुनी-प्रोष्ठपदानां च नक्षत्रे   । । १,२.६०  । ।
छन्दसि पुनर्वस्वोरेकवचनम्  । । १,२.६१  । ।
विशाखयोश्च   । । १,२.६२  । ।
तिष्य-पुनर्वस्वोर्नक्षत्र-द्वन्द्वे बहुवचनस्य द्विवचनं नित्यम्  । । १,२.६३  । ।
ससूपाणां एकशेष एक-विभक्तौ   । । १,२.६४  । ।
वृद्धो यूना तल्-लक्षणश्चेद्-एव विशेषः   । । १,२.६५  । ।
 स्त्री पुंवच्-च   । । १,२.६६  । ।
पुमान्स्त्रिया   । । १,२.६७  । ।
भ्रातृ-पुत्रौ स्वसृ-दुहितृभ्याम्  । । १,२.६८  । ।
नपुंसकं अनपुंसकेन-एकवच्-च-अस्य-अन्यतरस्याम्  । । १,२.६९  । ।
पिता मात्रा   । । १,२.७०  । ।
श्वशुरः श्वस्रवा   । । १,२.७१  । ।
त्यद्-आदीनि सर्वैर्नित्यम्  । । १,२.७२  । ।
ग्राम्य-पशु-सङ्घेष्वतरुणेशु स्त्री   । । १,२.७३  । ।


इति प्रथमाध्याये द्वितीयः पादः